भूतों के लिए चर्चित ‘मोहिते का वाड़ा’ और हाथीखाने तक में लगी संघ की पहली शाखाभूतों के लिए चर्चित ‘मोहिते का वाड़ा’ और हाथीखाने तक में लगी संघ की पहली शाखा

लेखक: विष्णु शर्मा

इस दशहरे को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी RSS अपने 100 साल पूरे कर रहा है. सोशल मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों तक संघ के बारे में तमाम बातें, दावे और कहानियां सुनी और सुनाई जा रही हैं. अपनी पहली शाखा से दुनिया का सबसे बड़ा गैर-राजनीतिक संगठन बनने तक, 100 साल की संघ की यात्रा समकालीन भारतीय इतिहास का अहम हिस्सा है. इस इतिहास को हमने छोटी-छोटी 100 कहानियों में समेटा है. पेश है पहली कहानी जो संघ की पहली शाखा कहां और कैसे लगी, ये बताती है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ यानी आरएसएस ने इसी साल मार्च में अपनी प्रतिनिधि सभा की बैठक में बताया कि एक साल में उसकी शाखाओं की संख्या 10 हजार बढ़कर कुल 83 हजार 129 हो गई. लेकिन 100 साल पहले लगी संघ की पहली शाखा में खासी दिक्कतें आई थीं. शाखा लगने से पहले रोज मिलने की शुरुआत अखाड़ों और व्यायामशालाओं से हुई. कसरत के बाद आपस में चर्चाएं होती थीं. डॉ केशव बलिराम हेडगेवार के आग्रह पर इतवार दरवाजा प्राथमिक शाला में अन्ना सोहोनी ने स्वयंसेवकों को दंड (लाठी) प्रशिक्षण देना भी शुरू कर दिया था.

डॉ. हेडगवार का मानना था कि स्वयंसेवकों के लिए शारीरिक के साथ साथ बौद्धिक मजबूती भी जरूरी है. स्वामी विवेकानंद की मूल सोच से जुड़ी ये बात भी दिलचस्प है कि डॉ हेडगेवार ने दंड प्रशिक्षण के लिए जिस मित्र अनंत गणेश यानी अन्ना सोहोनी को चुना था, बाद में उन्हीं के करीबी रिश्तेदार एकनाथ रानाडे ने कन्या कुमारी में प्रसिद्ध स्वामी विवेकानंद रॉक मेमोरियल बनवाया था. अब बौद्धिक चर्चाओं के लिए जगह की तलाश शुरू हुई, जो खत्म हुई उसी नागपुर व्यायामशाला के पास खाली पड़े एक खंडहर मोहिते का वाड़ा पर.

उसके अंदर कोई इस डर से नहीं जाता था क्योंकि कहा जाता था कि मोहिते का वाड़ा में भूत रहते हैं. लेकिन डॉ. हेडगेवार के एक मित्र भाऊजी कावरे, पत्नी की मौत के बाद पांच साल से उसमें आकर रह रहे थे. इस वाड़े के बीच में बिना छत वाला एक हॉल था, जिसके चारों तरफ आंगन था. भाऊजी के सुझाव पर हेडगेवार ने इसी स्थान का मन बनाया और स्वयंसेवकों ने उसकी सफाई शुरू कर दी. सफाई के दौरान उन्हें उसमें नीचे एक तहखाना भी मिल गया, जिसमें दो कमरे थे. उन्हीं कमरों में बैठकें होने लगीं.

मोहिते का वाड़ा दरअसल किसी सरदार मोहिते का था, जिसे पैसों की तंगी के चलते उसने एक जैन साहूकार गुलाबराव मोतीसाव पर गिरवी रख दिया था. मोहिते वो पैसा भी नहीं चुका पाए. साहूकार ने भी इस वाड़े पर ध्यान नहीं दिया और ये खंडहर होता चला गया. दो साल यहीं शाखा लगती रही, बाद में उस साहूकार को पता लगा तो उसने शाखा पर रोक लगा दी. इधर मोहिते के बच्चे भी सक्रिय हो गए और कोर्ट चले गए. लेकिन 1930 में वो केस हार गए और वाड़ा उसी साहूकार की सम्पत्ति बन गया.

इधर हेडगेवार जेल में थे और शाखा की जिम्मेदारी राजा साहब लक्ष्मण राव भोंसले को दे गए थे, तो उन्होंने शाखाएं अपने हाथीखाने में लगवाने के लिए कहा. लेकिन 2 साल बाद राजा साहब की मौत से वो सिलसिला भी टूट गया. तब से उनकी ही तुलसी बाग वाली जमीन पर शाखा लगने लगी. हालांकि राजा साहब के परिवार ने वहां भी संघ को रोक दिया. लेकिन तब तक नागपुर में ही 7-8 शाखाएं हो गई थीं.

डॉ हेडगेवार की मृत्यु के तीन चार महीने बाद मोहिते का वाड़ा वाले साहूकार की माली हालत काफी खराब हो गई, उसे किसी को 12 हजार रुपये 3 दिन में देने थे. उसके वकील दूसरे सरसंघचालक गुरु गोलवलकर के परिचित थे. उन्होंने स्वयंसेवकों के सहयोग से वो पैसा इकट्ठा कर साहूकार तक पहुंचाया. साहूकार ने मोहिते का वाड़ा संघ के नाम कर दिया. मोहिते का वाड़ा संघ स्वयंसेवकों के लिए आज तीर्थ स्थल की तरह है, और नागपुर में संघ मुख्यालय का हिस्सा है. इसकी पहली शाखा ने ना केवल एकनाथ रानाडे जैसा व्यक्तित्व दिया बल्कि संघ को तीसरे सरसंघचालक यानी मधुकर दत्रात्रेय देवरस भी दिए थे.

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