“युवा धर्म संसद’ की सार्थक पहल अपनी स्मृतियों पर समय के साथ सदा ही चढ़ती रहने वाली धूल की परत को झाड़ने का एक पुनीत प्रयास है। उत्तर के एक आचार्य ने यह कार्य प्रारंभ किया है। दक्षिण के एक शंकराचार्य ने ह्दय खोलकर इसका स्वागत किया है…
भारत की सात पवित्र मोक्षपुरियों में कांचीपुरम् भी एक है। यह तमिलनाडू में है। उत्तर भारत के एक आचार्य की प्रेरणा से युवा धर्म संसद के पाँचवें पड़ाव में सम्मिलित होकर लौटा हूँ। इसके पूर्व यह वैचारिक श्रंखला अयोध्या, मथुरा, काशी और हरिद्वार में हो चुकी है। उज्जैन और द्वारका अगले दो वर्ष के लक्ष्य हैं। सितंबर 1893 में स्वामी विवेकानंद के शिकागो व्याख्यान की स्मृति युवाओं के बीच इस मंथन की मूल प्रेरणा है।

देश भर से अलग-अलग विषयों में विश्वविद्यालयों की पढ़ाई कर रहे या पढ़ चुके सैकड़ों युवा कांचीपुरम में जुटे। वे दो दिन के लिए दो-दो दिन की यात्रा करके यहाँ आए और उन्हें लौटने में भी इतना ही समय लगा। कुछ ऐसे थे, जो पहली धर्म संसद से ही साथ बने हुए हैं। कई ऐसे थे, जो पहली बार जुड़े। काशी स्थित “सेवाज्ञ संस्थानम्’ के इस आयोजन के ऊर्जा केंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध आचार्य मिथिलेशनंदिनीशरण हैं।
दक्षिण के मन में उत्तर के प्रति भाषा को लेकर कटुता का भाव यदाकदा लहरों जैसा टकराता रहा है। सनातन परंपराओं को लक्ष्य कर तमिलनाडू की राजसत्ता विष बुझे बाण छोड़ती रही है। अकारण दक्षिण के इस राजनीतिक रौद्ररूप को भारत का उत्तर तटस्थ और आश्चर्यचकित भाव से देखता रहा है। ऐसे में युवाओं के समूहों को साथ लेकर गए उत्तर भारत के एक आचार्य को दक्षिण भारत के एक शंकराचार्य ने मुक्त मन से स्वागत किया और युवा धर्म संसद के इस संस्करण को अविस्मरणीय प्रसंग बना दिया।

संसद के शुभारंभ अवसर पर शंकराचार्य विजयेंद्र सरस्वती बार-बार कांचीपुरम् के शिल्प में सदियों से अंकित अयोध्यापति प्रभु श्रीराम के जीवन प्रसंगों का स्मरण इस अहोभाव से करते रहे कि भारत को उसकी महान संस्कृति और महानायकों ने ही उत्तर के हिम शिखरों से दक्षिण में समुद्रपर्यंत एकसूत्र में अनादिकाल से बाँध रखा है। उनका जोर इस बात पर था कि युवाओं को राष्ट्र की इस चिरंजीवी शक्ति का अनुभव होना ही चाहिए।
यह धर्म संसद कोई घोषणापत्र जारी नहीं करती। यह कोई सपने नहीं दिखाती। खोखली गर्वोक्तियों से भरे कर्णकटु जयघोषों से परे यहाँ अपने देश और अपनी संस्कृति के बारे में कुछ समकालीन चिंताएँ और उन्हें क्षीण करने की दिशा में अपनी भूमिका को स्पष्ट करने का भाव अवश्य रहा है। आचार्य के शब्द हैं, “कोई एक सेमिनार या सत्र आपको कुछ नहीं बना देगा, किंतु आप कुछ बन सकते हैं, यह दिशा अवश्य प्रकाशित कर देगा।’

विश्व में युद्धों की अशांति है। हिंसा की रक्तरेखा धरती पर धूमिल नहीं है। भारत के द्वंद्व गहरे हैं। एक ओर धरती और सृष्टि के बीच साहचर्य का स्वभाव वेदकाल से है तो दूसरी तरफ एक सहस्त्राब्दि की दासता से क्षतविक्षत और हरे घावों की भयावह स्मृतियाँ हैं। जनसंख्या के बोझ से चरमराता एक ऐसा देश जो आधुनिकता की होड़ में देख कहीं जा रहा है, जा कहीं रहा है। पश्चिम के मानक भारत की भूमि पर विपरीत प्रभाव उपजाने वाले बीज की तरह हैं। धरती को माँ माना, किंतु उसके श्रृंगारस्वरूप में नदियों, वनों, पर्वतों के विनाश निरंतर हैं।
स्वाधीनता के बाद राजनीति से जिस रचनात्मक योगदान की अपेक्षा थी, वह कोरी कल्पना होकर रह गई। 1936 में फ्रेंच विद्वान आंद्रे मॉलराक्स के साथ पंडित जवाहरलाल नेहरू की पेरिस में एक प्रसिद्ध भेंट हुई। भारत के अद्वैत वेदांत के गहरे प्रेमी मॉलराक्स ने नेहरूजी से कहा था कि महात्मा गाँधी कोई बड़ा पद नहीं लेंगे और आप भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे। मेरी ह्दय से प्रार्थना है कि आपके नेतृत्व में आचार्य शंकर भारत को गाइड करें।
मगर ऐसा हुआ नहीं। जयप्रकाश नारायण बहुत बाद में पेरिस यात्रा में पुन: मॉलराक्स से मिले और उन्होंने नेहरू के नेतृत्व में आचार्य शंकर के संदर्भ सहित भारत की दिशा के बारे में गहरी जिज्ञासा से पूछा तो जेपी ने सिर झुका लिया था। स्वाधीन भारत में सब कुछ नेहरू ही थे और उन्हें भारत की जड़ों से कोई लेना-देना नहीं था। वे किसी आचार्य शंकर को नहीं जानते थे। इंडिया उन्होंने डिस्कवर किया था और उनके द्वारा डिस्कवर इंडिया में वे ही सब कुछ थे।

जिन आचार्य शंकर को भविष्य के भारत के गाइड के रूप में आंद्रे मॉलराक्स देख रहे थे, कांचीपुरम् की मिट्टी में उनकी अनंत स्मृतियाँ हैं। दक्षिण में जन्मा वह बालक पूरे भारत की एकजुटता के लिए अपनी 32 वर्ष की अल्पायु भर सक्रिय रहा। युवा धर्म संसद के मंच की पृष्ठभूमि में उनका आकर्षक चित्र था और जिस दूसरे संन्यासी का चित्र उनके बराबर था, वह स्वामी विवेकानंद हैं।
हमें यह स्मरण होना चाहिए कि दिसंबर 1892 में बंगाल से तमिलनाडू पहुँचे स्वामी विवेकानंद कन्याकुमारी में समुद्र की उस अंतिम चट्टान पर तीन दिन ध्यानमग्न रहे थे। मद्रास लौटकर उन्होंने कहा था कि ऋषियों के धर्म को अपने खोल से बाहर आने का समय आ गया है!
भारत को उसकी नींद से जगाने वाला स्वामीजी का विश्वप्रसिद्ध शिकागो व्याख्यान नौ महीने बाद का ही प्रसंग है।

