के के उपाध्याय
भारत के वैचारिक परिदृश्य में एक संघर्ष लंबे समय से जारी है — एक ओर वह संगठन है जिसने राष्ट्रवाद को भारतीय जीवन का आधार माना, और दूसरी ओर वह विचारधारा है जो भारत की धरती पर विदेशी प्रयोगशाला से लाई गई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और कम्युनिस्टों के बीच यह तकरार केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि गहराई में उतरने पर यह भारत की आत्मा बनाम आयातित विचार का संघर्ष है।
कम्युनिस्टों का एक वर्ग दशकों से आरएसएस को कोसता आ रहा है। वे इसे “सांप्रदायिक”, “पिछड़ी सोच” या “मूर्ख विचारधारा” कहने से नहीं चूकते। परंतु विडंबना यह है कि यह आलोचना स्वयं उन लोगों के मुख से आती है जिनके विचारों की जड़ें भारत की मिट्टी में नहीं, बल्कि मॉस्को और बीजिंग की धरती में हैं। वे भारत को “वर्ग संघर्ष” के चश्मे से देखते हैं, जबकि आरएसएस भारत को “एकात्म परिवार” के रूप में मानता है। यह वही बुनियादी फर्क है जो दोनों धाराओं को परस्पर विरोधी बनाता है।
1925 में डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की, तब भारत दासता की बेड़ियों में जकड़ा था। उस समय विभिन्न आंदोलन तो चल रहे थे, पर उनमें एकता और अनुशासन का अभाव था। डॉ. हेडगेवार ने समझा कि जब तक समाज के भीतर आत्मविश्वास, चरित्र और संगठन की चेतना नहीं जागेगी, तब तक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। इसलिए संघ ने राजनीतिक सत्ता के बजाय सामाजिक पुनर्निर्माण को चुना। वह मानता है कि राष्ट्र का उत्थान किसी पार्टी या विचार की जीत से नहीं, बल्कि व्यक्ति और समाज के नैतिक उत्थान से होता है।
संघ का राष्ट्रवाद पश्चिमी देशों के राष्ट्रवाद से भिन्न है। यह भूमि, भाषा या वर्ग की सीमाओं पर आधारित नहीं है, बल्कि सांस्कृतिक एकात्मता पर टिका है। संघ का यह दृष्टिकोण भारतीय परंपरा के उस भाव से उपजा है जो कहता है – वसुधैव कुटुम्बकम्। राष्ट्र की अवधारणा यहाँ भूगोल की नहीं, भाव की है — भारत माता किसी सीमारेखा का नाम नहीं, बल्कि एक जीवंत चेतना है।
इसके विपरीत, कम्युनिस्ट आंदोलन की जड़ें भारत की वास्तविकताओं से दूर, यूरोप की औद्योगिक और संघर्षमय परिस्थितियों में पलीं। मार्क्स और लेनिन की विचारधारा का केंद्र वर्गों के बीच संघर्ष था। लेकिन भारत का समाज उस संघर्ष की उपज नहीं है। यहाँ धर्म जीवन का आधार है, परिवार सामाजिक इकाई है और विविधता में एकता का भाव उसकी आत्मा है। कम्युनिस्ट दृष्टिकोण ने जब इस संरचना को “वर्गीय भ्रम” कहकर खारिज किया, तब वह भारत की आत्मा से अलग पड़ गया।
कम्युनिज़्म ने भारत की सबसे बड़ी शक्ति – उसकी संस्कृति – को कभी समझने की कोशिश नहीं की। उसने धर्म को अफीम कहा, जबकि भारत में धर्म जीवन का नैतिक अनुशासन है। उसने परिवार को शोषण की इकाई कहा, जबकि यहाँ परिवार प्रेम, जिम्मेदारी और साझे जीवन का केंद्र है। उसने राष्ट्रवाद को पूँजीपतियों का षड्यंत्र कहा, जबकि भारत में राष्ट्रवाद आध्यात्मिक एकता की अभिव्यक्ति है। इसीलिए भारत में कम्युनिज़्म कभी जन-आंदोलन नहीं बन सका। वह किताबों और विश्वविद्यालयों में सीमित रह गया, जनमानस में नहीं उतरा।
इतिहास भी इस विरोध को स्पष्ट करता है। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जब पूरा देश ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध एकजुट था, उस समय भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ब्रिटिश साम्राज्य के साथ खड़ी थी। उनका तर्क था कि चूँकि रूस उस समय ब्रिटेन का मित्र था, अतः भारत का विद्रोह “सोवियत हितों” के विरुद्ध होगा। यही वह क्षण था जब कम्युनिस्ट विचार ने भारत की स्वतंत्रता से ऊपर किसी विदेशी सत्ता को प्राथमिकता दी। यही प्रवृत्ति 1962 में चीन-भारत युद्ध के समय फिर दिखी, जब कई वामपंथी नेताओं ने “चीन सही है” कहकर राष्ट्रनिष्ठा को आघात पहुँचाया।
बाद के दशकों में जब वामपंथ को पश्चिम बंगाल और केरल में सत्ता मिली, तब उन्होंने शिक्षा और संस्कृति को वैचारिक प्रयोगशाला बना दिया। इतिहास को वर्ग संघर्ष की दृष्टि से लिखा गया, भारतीय संतों और नायकों के योगदान को हाशिए पर डाला गया। उद्देश्य स्पष्ट था – नई पीढ़ी को अपनी जड़ों से काट देना। यह वैचारिक उपनिवेशवाद था, जो लाल झंडे की छाया में चलता रहा।
आरएसएस ने इस चुनौती का उत्तर विवाद से नहीं, सेवा से दिया। जहाँ वामपंथी “संघर्ष” की बात करते रहे, वहाँ संघ ने “सेवा” को अपने जीवन का मंत्र बनाया। सेवा भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती जैसे अनुषांगिक संगठनों ने समाज के उन कोनों तक पहुँच बनाई जहाँ न राजनीति पहुँची थी, न शासन। संघ का राष्ट्रवाद इसीलिए व्यवहारिक है – वह भाषणों में नहीं, कार्य में दिखता है।
समय ने भी अपना निर्णय दे दिया। आज जब सोवियत संघ इतिहास बन चुका है और चीन का कम्युनिज़्म पूँजीवादी ढाँचे में ढल चुका है, तब भी भारत में आरएसएस पहले से अधिक मजबूत, व्यापक और प्रासंगिक है। इसका कारण सरल है — संघ का विचार borrowed नहीं है, वह भारत की मिट्टी से जन्मा है। कम्युनिज़्म का आधार संघर्ष है, संघ का आधार समरसता। संघर्ष अस्थायी होता है, समरसता शाश्वत।
जो लोग आज भी आरएसएस को “मूर्ख विचारधारा” कहते हैं, वे शायद यह नहीं समझते कि संघ का विचार राजनीति नहीं, संस्कृति का पुनर्जागरण है। यह भारत की उस आत्मा का प्रतीक है जो सह-अस्तित्व में विश्वास करती है, जो टकराव नहीं, संवाद में समाधान देखती है। संघ का विश्वास इस धरती के सबसे प्राचीन सत्य में है — कि राष्ट्र किसी सत्ता से नहीं, उसके समाज की चेतना से बनता है।
आज का भारत उसी चेतना से जागृत है। संघ उस जागरण का वाहक है। कम्युनिज़्म की आलोचनाएँ इस चेतना की गति को रोक नहीं सकतीं, क्योंकि संघ का आधार सत्ता नहीं, संस्कार हैं।
मूर्खता वह नहीं जो परंपरा से प्रेम करे — मूर्खता वह है जो अपनी जड़ों को न पहचाने। और इसलिए, आरएसएस आज केवल एक संगठन नहीं, बल्कि उस भारत का प्रतीक है जो अपने अतीत से सीखकर भविष्य की दिशा तय करता है।
संघ का विचार सत्ता के लिए नहीं, आत्मबल के लिए है। वह नारा नहीं, अनुशासन है; आंदोलन नहीं, मनोवृत्ति है। यही कारण है कि वामपंथ इतिहास में सिमट गया, और संघ आज भी समाज के मध्य में, भारत के आत्मविश्वास के साथ खड़ा है — शांत, कर्मशील और स्थायी।
संघ का विचार मूर्खता नहीं — भारत की आत्मा की मूर्तता है।